बनारसी, कंचन, रचना, NA – 7, चकैया आदि।
आंवला की खेती नम तथा शुष्क दोनों जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है। यह नम जलवायु में बहुत अच्छी तरह पनपता है, परंतु उष्ण जलवायु में भी अच्छा फलता है, तथा पाले से पहले दो तीन वर्षों तक पौधें को बचाना आवश्यक है। बात में इस पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
बीज को पौधों के आवश्यकतानुसार उद्यान में लगाने के लिए प्रयोग करते हैं। बीज से आंवले के पौधें तैयार करने के लिए पहले देशी पके आंवलो को वृक्ष से तोड़कर इकट्ठा कर लेना चाहिए। गुठली से चरख के निकले हुए बीजों को कुछ देर पानी में डालकर रख देना चाहिए। बीच – बीच में उसे लकड़ी से हिला देना चाहिए। कुछ देर बाद उपर तैरते बीजों को अलग कर शेष बीजों को छाया में फैला देना चाहिए। जिससे वह सूख जाए, फिर उन्हें एकत्रित कर सुरक्षित कर लें। आवंला के बीजों को 15 से. मी. के फासले पर बनाई गई पंक्तियों में 4 -5 से. मी. के फासले पर आधा से. मी. की गहराई में बो देना चाहिए।
आंवले का रोपण वर्ष ऋतु में करना चाहिए। बगीचा लगाने के पूर्व अप्रैल – मई जून के जमीन को कम से कम दो जुताई कर ली जाये। इसके बाद पाटा चलाकर जमीन समतल कर लेनी चाहिए। बाद में रेखांकन करने की काई प्रणालियाँ हैं, परंतु वर्गाकार और षटभुजाकार की कई प्रणालियाँ अधिक प्रचलित हैं।
एक – दो बारिश हो जाने के बाद गड्ढे को भरकर जमीन के बराबर आ जाये, तब उसके बीचों – बीच पौधे का रोपण कर देना चाहिए। भेंट कलम द्वारा तैयार किये गये पौधों का रोपण कर देना चाहिए। भेंट कलम द्वारा किये गये पौधों का रोपण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कलम जोड़ जमीन में न दबे। पौधों के लिए उचित पानी की व्यवस्था होनी चाहिए।
आंवला वृक्ष में फल देर से आते हैं, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उसे पर्याप्त मात्रा में खाद और उर्वरक देकर उसकी वृद्धि द्रुत गति से कराई जाय। यद्यपि खाद एवं उर्वरक की मात्रा निश्चित नहीं है, फिर भी निम्न मात्रा में खाद और उर्वरक देने से निश्चित लाभ होगा।
खाद व उर्वरक |
एक |
दो |
तीन |
चार |
पांच |
छ: |
सात |
आठ वर्ष |
गोबर की खाद(कि. ग्र.) |
10 |
20 |
25 |
30 |
40 |
45 |
45 |
50 |
नाइट्रोजन (ग्राम) |
50 |
52 |
100 |
150 |
200 |
250 |
300 |
400 |
फास्फोरस (ग्राम) |
- |
- |
50 |
50 |
100 |
200 |
400 |
500 |
पोटाश (ग्राम) |
- |
- |
- |
- |
- |
500 |
600 |
700 |
आंवले के पौधे को वर्षा ऋतु में सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती। मार्च माह में जब नई कोपले निकलने लगे तो सिंचाई करना आरंभ कर देना चाहिए। जून माह तक कुल पन्द्रह दी के अन्तराल से चार पांच सिंचाई की आवश्यकता होती है। अत: जल असिंचित क्षेत्रों में जहाँ पर अन्य उद्यानिकी फसलें न ली जा सकती हो हो उनका उपयोग आंवला रोपण करके किया जा सकता है।
नए बगीचों में कम से कम दो सिंचाईयों के बाद एक निंदाई – गुड़ाई के अतिरिक्त बाग़ की एक जुताई सितंबर – अक्टूबर में करनी चाहिए, जिससे वर्ष ऋतु में पैदा हुई घास – फूस जमीन में दब जाएँ।
आंवला जनवरी माह में पूर्ण से पक जाते हैं इस समय फलों की तुड़ाई करनी चाहिए। जब फल के रंग में बदलाव के साथ पीलापन या सुर्खी आने लगे तब समझना चाहिए कि फल पक गये हैं। तुड़ाई न तो डंडा मार कर और न ही फल जमीन पर गिराकर करें, अन्यथा फलों पर घाव या दाग लगने की संभावना होती है।
यह जुलाई से सितम्बर तक आंवले की टहनी की शिखा में छेद करके भीतर बैठ जाती है। जिससे शिखा कि और गांठ बनने लगती है, जिसके परिणाम स्वरुप गांठ के उपर टहनी की बढ़वार बिल्कुल रूक जाती है।
निवारण
मोनोक्रोटोफौस या फस्फाईमिडान के 0.125 प्रतिशत घोल का अगस्त – सितंबर में छिड़काव करने से कुछ सीमा तक इससे बचाव होता है।
इसके प्रकोप से पत्तियों पर रोली के धब्बे बन जाते हैं। फलों पर काले धब्बे उसे पकने से पहले ही सड़ा देते हैं।
निवारण
घुलनशील गंधक दो ग्राम प्रति लिटर अथवा बेलोटोन 1 ग्राम प्रतिलीटर की दर से तीन छिड़काव जुलाई माह से एक महीने के अन्तराल से करना चाहिए।
फलों पर पानी सोखे हुए भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में उन पर नीले रंग का अंश लिए फफूंदी लग जाती है, जिसे पेनिसिलियम आइस्लैण्डीकम कहते हैं, ये फलों को सड़ा देती है।
निवारण
सुहागा के हल्के घोल का छिड़काव से तथा भण्डारण के बीच सफाई रखने से इस रोग पर नियंत्रण पाया जाता सकता है।
अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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