भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की आहूति देने वाले वीर शहीदों में कुछ एक नाम भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हुए हैं, किन्तु अधिकांश नाम गुमनामी के गर्त में विलीन हो गये हैं। इन गुमनाम शहीदों में कुछ नाम ऐसे हैं जिनका त्याग, जिनकी आहूति उन नामों से अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण रही है, जिन्हें इतिहास से स्थान मिलता है। गुमनामी के ऐसे शिकार नामों में छोटानागपुर के वीर शहीद बुधू भगत का नाम प्रमुख हैं। उनके त्याग और बलिदान का इतिहासकारों ने उसी प्रकार उपेक्षित रखा जिस प्रकार उन्होंने छोटानागपुर एवं यहाँ की जनजातियों के इतिहास को नजर – अंदाज किया है। अंधकार में पड़ी ये जनजातियाँ ऐसी हैं जिनका न कोई अपना इतिहास लिखा है और न जिनकी संतानों ने कभी अपने पुरखों की गौरव गाथाएं ही पढ़ी है। यह सच है की सामग्री स्रोतों के अभाव में छोटानागपुर एवं यहाँ की जनजातियों का इतिहास लेखन एक अपराजेय चुनौती बनी हुई है। यही कारण है कि हमारे अनेक इतिहास पुरूष गुमनामी के अँधेरे में खो चुके हैं।
वीर शहीद बुधू भगत छोटानागपुर के उन जन आन्दोलन के नायक थे जिसे अंग्रेजों ने कोल विद्रोह की संज्ञा दी है। यह लगभग उसी तरह जैसे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन को सिपाही विद्रोह की संज्ञा दी गयी है। वस्तुत: यह कोलों का विद्रोह नहीं था, वस्तुत: इस आन्दोलन में जनजातियों के साथ – साथ छोटानागपुर की भूमि से जुड़े, इसके अन्न, जल से पले छोटानागपुर की भूमि पुत्रों का अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता का आन्दोलन था। इस आंदोलन में लेस्लीगंज का ख्रीस्तेदार आलम चन्द्र और कानूनगो गौरिचरण की भूमिकाएँ कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने आन्दोलनकारियों के हित में न केवल गलत सूचनाएं देकर अंग्रेज सेना को घाटियों में गुमराह रखा बल्कि बरकंदाओं आदि की सहायता न पहुंचाकर अंग्रेजों की सेना को क्षीण भी किया।
अंग्रेजों ने प्रचारित किया था कि कोलों का उक्त आन्दोलन अंग्रेजों के विरूद्ध नहीं था, अपितु जागीरदारों एवं जमींदारों के शोषण के विरूद्ध था। कुछ सीमा तक इसे सत्य मन जा सकता है, किन्तु यह पूरी तरह सही नहीं हैं। यदि ऐसी बात होती तो अंग्रेजों के आने से पूर्व यहाँ पर जमींदार एवं जमींदारों के विरूद्ध आन्दोलन हुआ होता, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, वस्तुत: अंग्रेजों ने छोटानागपुर के राजाओं से मालगुजारी वसूलना प्रारंभ कर दिया था। जिसका परोक्ष प्रभाव रजा एवं जमींदारों से होते हुए सामान्य जनता पर पड़ता था। यह हाथ घुमाकर नाम पकड़ने जैसे बात थी। सारा खेल अंग्रेजों का था, 1832 के आंदोलन का यद्यपि प्रत्यक्ष कारण कुँवर हरनाथशाही द्वारा पठानों एवं सिक्खों के कुछ गांवों का स्वामित्व सौंपे जाने तथा उनके अत्याचारों से जुड़ा हुआ है किन्तु वास्तविकता यह है कि आंदोलन की चिनगारी तीन वर्षों से इकट्ठा हो रही थी। मानकियों पर होने वाले अत्याचार ने इस इस पर चिनगारी का कार्य किया। अंग्रेजों के छोटानागपुर पदार्पण के उपरांत 1805, 1807, 1808 तथा 1819 – 20 में भी आंदोलन हुए थे और अंग्रेजों के विरूद्ध ही हुए थे।
इसी प्रकार 1832 ई. का आंदोलन भी विदेशी राज्य के विरूद्ध स्वतंत्रता का आंदोलन था। यह कोल विद्रोह नहीं था।
अंग्रेजों ने इस जन आंदोलन को कोल विद्रोह की संज्ञा सोद्देश्य दी थी। वे ने केवल अपना चेहरा साफ़ रखना चाहते थे, अपितु छोटानागपुर के संगठित निवासियों में विभेद भी पैदा करना चाहते थे।
वीर बुधू भगत का जन्म रांची जिला के सिलंगाई गावं (चान्हो) में हुआ था। ये और इनके दो सुपुत्र हलधर और गिरधर, जिनकी वीरता के सामने अंग्रेजी सेना और अंग्रेजों के चाटूकार जमींदारों को जिस प्रकार से पराजय का मूंह देखना पड़ा था – कहा जाता है कि वीर बुधू भगत देवीय शक्ति युक्त एक ऐसे महान सेनानी थे, जिनके नेतृत्व में हजारों हजार आदिवासी जिनमें मूलत: उराँव जाति के थे, अंग्रेजों के खिलाफ सन 1826 ई. में लड़ाई लड़ने के लिए तत्पर हो उठे। बुधू भगत जिनकी संगठनात्मक क्षमता अद्भुद होती, वे विभेद भाव से सामान्य जनता को बचाना चाहते थे। उन्होंने दूर – दराज गांवों तक आपसी भेदभाव को दूर कर सामने एक शत्रु को देखने की बात कही थी। यह उनकी लोकप्रियता का प्रभाव था कि यह आंदोलन सोनपुर, तमाड़ एवं बंदगाँव के मुंडा मानकियों का आंदोलन न होकर छोटानागपुर के समस्त भूमि पुत्रों आंदोलन हो गया था। वीर बुधू भगत के प्रभाव का अनुभव अंग्रेजों को हो गया था। छोटानागपुर के तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने 8 फरवरी 1832 ई. के अपने पत्र में बुधू भगत के विस्तृत प्रभाव एवं कुशल नेतृत्व का उल्लेख किया है। उन्होंने चोरिया, टिक्कू, सिल्ली गाँव एवं अन्य पड़ोसी गांवों के घनी आबादी अंग्रेजों के लिए अत्यंत त्रासद हो गयी है विशेषकर इसलिए कि उन्हें सिलांगाई (चान्हो) गांव के बुधू भगत के रूप में एक ऐसा नेता पा लिया है जिनका उनपर गहरा प्रभाव है। बुधू भगत की लोकप्रियता एवं जनमानस पर उनके प्रभाव को अंग्रेज अधिकारीयों ने स्वीकारा था।
छोटानागपुर में अबतक हुए आंदोलनों में यद्यपि अनेक नेताओं एवं शहीदों का नाम आदिवासियों के बीच उभरा एवं चमका है, किन्तु बुधू भगत इन सबमें श्रेष्ठ और शीर्षस्थ माने जा सकते हैं। बुधू भगत की शक्ति, संगठन की अद्भूत क्षमता जिसके कारण इनसे आंतकित अंग्रेजों पर इनके आंतक का अनुमान उपरोक्त पत्र में संयुक्त आयुक्तों के इस पत्र से लगया जा सकता है।
इस प्रकार अंग्रेज अधिकारी अपनी सारी क्षेत्रीय शक्ति बुधू भगत को जीवित या मृत पकड़ने में लगाए हुए थे। उनकी गणना के अनुसार मात्र बुधू भगत के अवसान से चारों और शांति स्थापित हो जाएगी और कोल विद्रोह बिखर जाएगा। छोटानागपुर के इतिहास में कदाचित कोई ऐसा लोकप्रिय जन नायक अब तक नहीं पैदा हुआ है जो बुधू भगत की ऊंचाई कर सका हो।
अंग्रेजों द्वारा बुधू भगत को घेरने एवं गिरफ्तार करने के सभी प्रयास निष्फल हो चुके थे। कभी सूचना मिलती कि बुधू भगत चोरिया में देखे गये तो तत्क्षण पता चलता है कि वह टिक्कू गाँव में लोगों के बीच थे। कभी – कभी ही समय में बुधू भगत को दो स्थानों पर देखे जाने की सूचना मिलती। सूचनाओं के आधार पर अंग्रेजी फ़ौज अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ निर्दिष्ट स्थानों पर पहुँचती और इन्हें घेर पाती इसके पूर्व ही बुधू भगत अपना कार्य पूर्ण कर वन एवं उपत्यकाओं में खो जाते, कुछ पता नहीं चल पाता था कि किस गति से, किस मार्ग से और किस प्रकार बुधू भगत एक क्षण एक स्थान पर होते तो दुसरे ही क्षण कोसों दूर दुसरे स्थान पर उन्हें कार्यरत पाया जाता है। यह रहस्य लोगों के समझ से बाहर था। अंग्रेज यह मानकर संतोष कर बैठे के कि बुधू भगत को क्षेत्र के जंगल पहाड़ों एवं बीहड़ मार्गों का अच्छा ज्ञान था। चूंकि भगत को जन – समर्थन प्राप्त था अत: उसे न केवल वन – प्रांतर सुरक्षा प्रदान करते थे, अपितु हर झोपड़ी, हर मकान उसे ओट देने को तत्पर रहते थे। उनकी चपलता क्षिप्रता एवं कार्यकुशलता के कारण ग्रामीणों में अन्धविश्वास पैदा होने लगा था। की बुधू भगत में दैवी शक्ति है, वह एक ही समय में कई स्थानों पर दिखलाई पड़ते हैं, वे अपना रूप बदल सकते हैं, उन्हें लोगों ने हवा में उड़ते देखा है, वे गोरों के विनाश के लिए अवतरित हुए हैं हताश अंग्रेज अधिकारीयों ने बुधू भगत को जीवित या मृत पकड़वाने वाले को एक हजार पुरस्कार की घोषणा कर दी। यह एक अनूठा चारा था, जो मुखविरों एवं धन लोलुपों को आकर्षित करने के लिए अंग्रेजों ने डाला था। संभवत: अंग्रेजों द्वारा इस प्रकार के प्रलोभन की यह पहली घटना थी। इससे भी बुधू भगत की लोकप्रियता एवं नेतृत्व कौशल का मूल्यांकन किया जा सकता है। छोटानागपुर के बुधू भगत को प्रथम श्रेय जाता है कि उनके शीश के लिए अंग्रेजों ने पुरस्कार की घोषणा की थी। कालान्तर में बिरसा मुंडा को भी पकड़वाने के लिए भी अंग्रेजों ने पुरस्कार की घोषणा की थी। दोनों नेताओं ने महत्वपूर्ण अंतर था कि बुधू भगत को कभी कोई व्यक्ति पकड़वाने की बात सोच भी नहीं सकता था, जबकि बिरसा मुंडा के साथ ऐसी लोकप्रियता एवं लगाव का अभाव था। धन लोलुपों ने बिरसा मुंडा को जा पकड़ा और सरकार के हवाले कर दिया। वस्तुत: बुधू भगत अजातशत्रु थे और जनमानस उनसे विलग होने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। बुधू भगत की लोकप्रियता इतनी प्रबल थी कि उनके अनुयायी चारों ओर बंदूकधारी सैनिकों से घिरे हुए अपने नेता बुधू भगत को बचाने के लिए लगभग तीन सौ व्यक्तियों ने भगत के चारों ओर से घेरा डाल दिया था। घेरा बुधू भगत को गोलियों की झेलते हुए गिरते जा रहे थे और वीर बुधू भगत सेना की पहुँच से बाहर होता जा रहा था। अपने नेता के लिए प्राणों की आहूति देने की स्पर्धा, गोलियों की बौछार के विरूद्ध मानव शरीर के एक सुदृढ़ दिवार। बुधू भगत जैसा जन- नायक इना – गिना ही जन्म लेता है।
सन 1832 ई. के जनाक्रोश की ज्वाला को तेजी से फैलते देखकर तथा अपनी सीमित जानकारी एवं सैन्य शक्ति से हताश अंग्रेज अधिकारीयों ने बनारस, दानापुर, मिदनापुर आदि स्थानों से कुमुक और विशेषकर घुड़सवारों ताबड़तोड़ मांग शुरू कर दी। फरवरी की प्रथम सप्ताह तक छोटानागपुर की धरती सैनिकों, घुड़सवारों एवं अंग्रेज अफसर से भर गयी थी। कैप्टन इम्पे एक भरोसेमंद और साथ ही साथ एक कुशल सैन्य अधिकारी था। उसे बुधू भगत को जीवित या मृत पकड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। छोटानागपुर के संयुक्त आयुक्तों के द्वारा सरकार को 16 नवम्बर 1832 को लिखे गये पत्रों से पता चलता है कि बनारस से सैनिकों की छ: कम्पनियों तथा तीसरी लाइट केवेलरी कैप्टन इम्पे के अधीन थी। कैप्टन इम्पे अपनी विशाल सेना लेकर टिक्कू पहुंचा। इम्पे ने टिक्कू की घर झोपड़ी छान डाली, किन्तु बुधू भगत नहीं मिला। बचे खुचे ग्रामीणों पर पूरा दबाव डाला गया, परंतु कोई परिणाम नहीं निकला। तत्पश्चात सैनिकों के द्वारा विनाश लीला का वीभत्स तांडव शुरू हुआ, नर संहार, आगजनी और चीख पुकार के बीच लगभग 4 हजार ग्रामीणों को बंदी बनाया गया। इम्पे ने पिठोरिया शिविर में सूचना भेजी को उसने 4 हजार विद्रोहियों से हथियार समर्पित करवा कर उन्हें बंदी बना लिया है।
लगभग 4 हजार ग्रामीणों को बंदी बनाकर इम्पे की सेना टेढ़ी मेढ़ी घाटियों से होते हुए पिठोरिया के लिए रवाना हुई। गाँव की औरतें, बच्चे पहाड़ी की ऊंचाई से नीचे घाटी में कैदियों के रूप में जाते हुए अपने परिजनों को चीख – चीख कर पुकार रहे थे, कैदियों का हुजूम सैनिकों की गिरफ्त में विवश घाटी से घिसटता जा रहा था, सर्वत्र त्राहि - त्राहि मची हुई थी, बच्चे बूढ़े औरतों की चीख पुकार वे वन प्रान्तर प्रकम्पित था। यह घटना 10 फरवरी 1832 की है। कौन और किसने जाना की बुधू भगत के नाम पर गूंजता अंतर्नाद छोटानागपुर की पर्वत एवं वनों सहधर्मी हवाओं एवं मेघों को आंदोलित कर देगा। फरवरी का महिना, आंधी पानी का महिना नहीं था, अकस्मात् आसमान में बादल घिर आये तथा आंधी पानी का एक ऐसा भयंकर तूफ़ान आया कि सैनिक टूट हुए पत्ते की तरह उड़ – उड़ कर बिखरने लगे और ऐसी परिस्थितियों तथा मार्ग से अभ्यस्त ग्रामीणों ने जगंल की राह ली। यह एक ईश्वरीय चमत्कार था। आंधी – पानी ने लगभग चार हजार निर्दोष ग्रामीणों को सैनिकों के घेरे से मुक्त करा लिया था। इम्पे हतप्रभ किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया था।
इस असफलता पर इम्पे झूंझलाया हुआ था कि उसे सिल्ली गाँव में बुधू भगत के आने की सूचना हुई, यद्यपि बुधू भगत सिल्ली या सिगी (चान्हो) गाँव का निवासी था। किन्तु उसका प्रभाव एवं कार्यक्षेत्र टिक्कू तथा उसके आगे के गांव तक विस्तृत था। टिक्कू किन विनाश लीला वह देख चुका था इसलिए वह सिलांगाई के साथियों को सतर्क करना चाहता था, वह जनता था कि टिक्कू के उपरांत अंग्रेज सिलांगाई पर धावा बोलेंगे – पूर्वाहन 13 फरवरी 1832 ई. कैप्टन इम्पे के नेतृत्व में सैनिकों ने सिलांगाई गाँव को चारों ओर से घेर लिया, प्राप्त विवरणों के अनुसार कैप्टनों इम्पे के पास उस समय सेना की चार कम्पनियां एवं घुड़सवारों का एक दल था। घुड़सवारों एवं बंदूकों से लैस सैनिकों का घेरा गाँव पर शनै: शनै: कसता जा रहा था। बंगाल हरकारा के 29 फरवरी 1832 के अंक में विस्तृत विवरण प्रकाशित है कि किस प्रकार सैनिक अपने गहरे को संकुचित करते जा रहे थे और किस प्रकार गाँव के लोगों ने अपने नायक बुधू भगत को घेरे में लेकर निकल भागने का प्रयास कर रहे थे। मेजर सदरलैंड ने यद्यपि बुधू भगत के अनुयायियों की दृढ़ता एवं बलिदानी युद्ध क्षमता की प्रशंसा करते हुए सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजी थी, किन्तु उसने यह भी कहा था कि हमारे बन्दूक एवं पिस्तौल के सम्मुख कोलों के तीर एवं कुल्हाड़ी की क्या औकात थी?
छोटानागपुर का मुख्यालय यद्यपि चतरा में था, किन्तु पिठौरिया शिविर से अधिकांश सैन्य संचालन एवं प्रशासनिक व्यवस्था नियंत्रित होती थी। यहाँ से मेजर थाम्स – विलकिल्सन का सैनिक शिविर लगा हुआ था। कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पात्र पत्रिकाओं के प्रतिनिधि आंदोलन संबंधी समाचार संग्रह के लिए पिठौरिया आया करते थे। वे अंग्रेज हुआ करते थे और ऐसे ही एक प्रतिनिधि की उपस्थिति में बड़े विजयोल्लास के साथ तत्कालीन आयुक्त के सम्मुख पिठौरिया के शिविर में बुधू भगत उसके छोटे भाई तथा भतीजे का कटा हुआ सिर रखा गया। हजारों की संख्या में महानायक के अंतिम दर्शन के लिए लोग उपस्थित थे। स्वाभाविक है वह दृश्य काफी विभत्स रहा होगा। वीर बुधू भगत और उनके सहयोगियों की वीर गाथाएं आज भी लोक कथाओं और लोग गीतों के द्वारा निरंतर गायी जाती जो उनकी शहादत की लोकप्रियता का प्रतिक है। उक्त विभत्स विजयोल्लास को देखकर पत्रकार क्षोभ और घृणा से भर उठा था। (बंगाल हरकारा 29 फरवरी 1832 ई.)
सेना एवं अंग्रेज सैनिक अधिकारीयों के अमानवीय कुकृत्यों वे प्राय: समाचार पत्र भरे रहते थे। बुधू भगत पर आक्रमण एवं उनके गांव की दुर्दशा एवं हृदय विदारक दृश्यों की चर्चा करते हुए जॉन वुल ने बंगाल हरकारा के 2 मार्च 1832 ई. के अंक में लिखा है कि इस प्रकार की असंतुलित सैनिक कारवाईयों से निरपराध जनता संज्ञा शून्य हो गयी थी। वे जब मिलते तो एक दुसरे की ओर अर्थहीन दृष्टि से निर्निमेष देखते रह जाते थे। सिलांगाई गाँव की धरती शाम होते - होते शवों से पट गयी थी और जलती हुई झोपड़ी के आंच में सर्वत्र बिखरे हुए शव हृदय विदारक दृश्य था, जब शवों के बीच नन्हें - नन्हें हाथ – पावों वाले नग्न बच्चे विभ्रम शवों के बीच अपनी माँ, अपने बाबा को विलखते हुए ढूंढते रहते और चित्कार करती हुई माँ पागलों की तरह अपने अबोध शिशु को गोद में लिए हुए शवों के बीच अपने सुहाग को तलाश रही थी।
बुधू भगत के पतन के साथ आंदोलन की समस्त कड़ियाँ बिखर गई। 29 फरवरी 1832 ई. के अंक में बंगाल हरकारा ने टिप्पणी की कि बुधू भगत के पतन का परिणाम यह हुआ कि अनेक गांवों के कोल मुंडाओं ने छोटानागपुर के आयुक्त के सम्मुख आकर स्वत: आत्म समर्पण कर दिया। छोटानागपुर की धरती से अंग्रेजों का उखड़ता हुआ पाँव जमने लगा।
1832 का स्वतंत्रता का आन्दोलन बुधू भगत के बलिदान के लगभग दो माह पश्चात् पूरी तरह कुचल दिया गया। आन्दोलन के सूत्रधार मुंडा – मानकियों ने भी आत्मा समर्पण कर दिया। क्रमश: सब कुछ मौत के सन्नाटे में शांत हो गया।
स्त्रोत: जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार
अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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