आवास केवल चार दीवारों और छत से नहीं बनता है। आवास की अवधारणा में बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था –पीने के लिए शुद्ध पानी, जल निकासी की उचित व्यवस्था, सामुदायिक केंद्र, बच्चों के लिए स्कूल, औषधालय, आदि सभी चीजें आती हैं जिसमें ऐसी सुविधाएँ हैं।
आवास का निर्माण करते समय या फिर आवास बन जाने के बाद निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि रहन-सहन ऊँचा करने की दिशा में यह पहला कदम माना जाता है-
भारत गांवों का देश है जहाँ 6 लाख से ज्यादा गाँव है, जहाँ पर विभिन्न प्रकार के लोग आर्थिक स्थिति एक दुसरे से भिन्न है, निवास करते हैं। अत: तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं।
पहला श्रेणी–इस श्रेणी में पक्के आवास आते हैं जिनकी दीवारें ईट – पत्थर की होती है जिसमें छत पक्की/खपरैल/टाइल्स या सीमेंट चादरों की होती हैं। इस प्रकार के मकानों की संख्या अभी भी बहुत कम है।
दूसरी श्रेणी- इस श्रेणी में मिट्टी की दीवार वाले मकान आते हैं। इस प्रकार के मकानों में छत खपरैल या टीन की चादरों के होते हैं।
अगर हम झारखंड राज्य के ग्रामीण आवासों के प्रकार पर विचार करेंगे तो पाएँगे की झारखंड की कूल ग्रामणी जनसंख्या 20952088 (जनगणना 2001) है जो 3742441 मकानों में रहते हैं। अथार्त एक घर में औसतन 5.59 व्यक्ति निवास करते हैं। तालिका 1 यह दर्शाती है की ग्रामीण जनसंख्या किस तरह के मकान में निवास करती है।
तालिका – 1
श्रेणीवार ग्रामीण आवास
पक्के आवास |
अधपक्के आवास |
कच्चे आवास |
अन्य आवास |
कोल |
726380 |
2507630 |
508307 |
124 |
374244 |
स्रोत : भारत की जनगणना- 2001
छत सामग्री : जैसा की पहले बताया जा चुका है की झारखंड राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न तरह के लोग निवास करते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति एक समान नहीं है। अत: वे अपने आवासों के लिए विभिन्न तरह के छत सामग्रियों का उपयोग करते हैं। तालिका 2 यह दर्शाती है की झारखण्ड राज्य की ग्रामीण क्षेत्रों में आवास के लिए किस- किस तरह की सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है।
बांस और लकड़ी |
पोलीथीन (प्लास्टिक) |
खपड़ा |
स्लेट पत्थर |
अस्बेस्ट्स |
ईट |
पत्थर |
पक्का |
अन्य |
595725 |
8412 |
3083404 |
11447 |
71517 |
10019 |
13457 |
685905 |
9321 |
स्रोत : भारत की जनगणना- 2001
उपरोक्त तालिका के अनुसार अधिकतर ग्रामीण जनता मिट्टी के दीवार (तालिका 1) एवं छत के लिए बांस, लकड़ी एवं खपड़ा का प्रयोग करते हैं।
केन्द्रीय बजट
सरकार ने ग्रामीण निर्धनों को आश्रय उपलब्ध करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम शुरू किये हैं। इसमें एक प्रमुख कार्यक्रम “इंदिरा आवास योजना” है। इस कार्यक्रम के तहत् वर्ष 2002- 2007 के दौरान 8,603 करोड़ रूपया (दसवीं पंचवर्षीय योजना- भेल्यूम 2) व्यय करने का प्रावधान है )
वैसे तो आवास की समस्या दुनिया भर में मौजूद है लेकिन हमारे भारत वर्ष के ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या अधिक है क्योंकि ¾ जनसंख्या गांवों में रहती है। सयुंक्त राष्ट्र संघ के एक फैसले के अनुसार वर्ष 1987 को आवासहीनों के लिए आवास उपलब्ध कराने के उद्देश्य से उस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया गया था और इसके तहत् हर देश में आवास नीति को नये सिरे से निमार्ण करना तथा सन 2000 तक सभी गरीबों के लिए आवास उपलब्ध कराने का लक्ष्य रख गया था। हमारे देश में आवास नीति तो बन लिया गया लेकिन अभी तक सभी गरीबों के लिए आवास की व्यवस्था का जो सपना थी वह पूरा नहीं हो सका है। मकान जो भी बनाये जा रहे है उनमें से अधिकतर मकानों में पानी, शौचालय, आदि की उचित सुविधा न होने के कारण निवासियों को कष्ट का सामना करना पड़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार देश की आधी आबादी एक कमरे में 5-6 सदस्यों के साथ रह रहे हैं। इस स्थिति में रहने के कारण परिवार में अस्वस्थ वातावरण तो बनता ही है और साथ ही साथ बच्चों की पढाई- लिखाई भी उचित ढंग से नहीं हो पाती है।
देश की विशाल जनसंख्या एवं इसमें तेजी से बढ़ोतरी, संयुक्त परिवार का ह्रास, आवासों के निर्माण में लाभुकों का पूर्ण रूप ले सहभागिता का अभाव, सरकारी नीति, जंगल की बर्बादी आदि कारक है जो देश में आवास की समस्या को बढ़ावा दे रहे हैं।
निष्कर्ष :
ग्रामीण क्षेत्रों में आवास उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रमों में गृह – निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगा। साथ ही साथ गैर – सरकारी संगठनों को भी इस क्षेत्र में अहम भूमिका निभाना होगा और महिलाओं का सक्रिय सहयोग भी प्राप्त करना होगा। इसके अलावा लाभुकों की भागीदारी एवं सरकारी कार्यक्रमों में पारदर्शिता लाना भी जरूरी होगा।
आजादी के पांच दशक बाद भी आज मकान की समस्या निरंतर जटिल होती जा रही है। जिस गति से हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, उस गति से नये माकन नहीं बन रहें हैं। आज भी नगरों की 25 प्रतिशत तक जनसंख्या गन्दी बस्तियों में रह रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो और भी विकट है। तीसरी विश्व के सभी देशों का लगभग यही हाल है। सन 1970 में विश्व बैंक ने एक सर्वेक्षण किया था उसके अनुसार, बोगोटा, नौरोबी, मैक्सिको सिटी, मद्रास और अमदानगर के 50 से 65 प्रतिशत परिवार इस स्थिति में नहीं हैं की सीमेंट और पक्की ईंटो से बना सस्ते से सस्ता मकान खरीद सकें। उल्लेखनीय है की 1970 में सबसे सस्ता मकान 5,000 रूपये में तैयार हो जाता था।
लेकिन मकान न खरीद पाने की विवशता अब और बढ़ गई है क्योंकि वेतन वृद्धि की तुलना में महंगाई कहीं ज्यादा बढ़ी है। सीमेंट, ईंट, लोहा, लकड़ी, जमीन, श्रम लागत सभी की कीमतें कई गुना बढ़ गई हैं।
मकानों की समस्या सीमेंट के पक्के मकानों की मृग- मरीचिका त्यागकर मिट्टी के मकान बनाकर ही सुलझायी जा सकती है। एक आंकड़े के अनुसार वर्तमान में देश की लगभग तेरह करोड़ मकानों में से लगभग आठ करोड़ मकान मिट्टी के बने हैं। अत: यह धारणा सर्वथा निर्मूल है की सीमेंट के बिना गृह – निर्माण नहीं हो सकता। सीमेंट एक तो महँगा है, दूसरे इसका उत्पाद बढ़ाने के लिए उर्जा चाहिए और उर्जा की पहले ही कमी है। गृह – विशेषज्ञ सहमत हैं की सीमेंट के स्थान पर गारा – चूना इस्तेमाल किया जा सकता है। गारा एक तो सस्ता होता है, दूसरे, विशेषत: उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में गारे से बढ़िया किस्म के मकान भी बनाए सकते हैं और इससे पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता है। मिट्टी से मात्र दीवारें ही नहीं, छतें भी बनायी जाती हैं और मिट्टी से प्लास्टर भी किया जाता है। मजबूती के लिए इस प्लास्टर में भूसा, चूना और थोड़ी सीमेंट मिलायी जाती है।
इंग्लैड व यूरोप के कई देशों में भी कच्चे मकान और कॉटेज बनाने की दीर्घकालीन परम्परा रही है। इंग्लॅण्ड के शहरी रईसों ने ग्रामीण क्षेत्रों में कई ऐसे नयनाभिराम कॉटेज बनवा रखे हैं जहाँ वे अवकाश बिताने जाते रहते हैं।
प्राचीन भारत में बड़े-बड़े मकान, हवेलियाँ और महल तक मिट्टी के बनते रहे हैं। भूटान में मिट्टी के विशाल पहाड़ी किले भी मिले हैं। उत्तरी यमन में मिट्टी से निमिर्त आठ मंजिला मकान तक हैं। मिस्र में मिट्टी से बनी मेहराबें और दीवारें पिरामिडों से भी पुरानी हैं। चीन में तो मिट्टी के भूगर्भस्थ, मकान हैं। नाईजीरिया में मकान बनाने के लिए मिट्टी, बांस और चटाई का का इस्तेमाल होता है। मोरक्को में मिट्टी के मकान परस्पर सटा कर बनाए जाते हैं। एक वास्तुविद का कहना है कि इन मिट्टी के महलों की तुलना विश्व वास्तुकला के सर्वश्रेष्ठ नमूनों से की जा सकती है।
मिट्टी के घर इतने कमजोर नहीं होते जितना हम समझते हैं। जर्मनी में कच्ची ईंटों, इस प्रकार सूखायी जाती हैं की इनमें दरार आना लगभग असम्भव होता है।
अत: भारत की विभिन्न आवास बोर्डो तथा विकास प्राधिकरणों को आवास समस्या का समाधान करने के लिए मिट्टी के व्यापक इस्तेमाल की ओर ध्यान देना चाहिए ताकि कम खर्च में सभी को मकान सुलभ हो सके।
अभी कुछ समय पहले तक आवास को उपभोक्ता वस्तु समझा जाता था लेकिन हाल ही में विश्व में यह विचार बना ही है की आवास को मात्र उपभोक्ता वस्तु न समझी जाए क्योंकि ही समूची विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। इसे अब कल्याण क्षेत्र के अंतर्गत नहीं रखा जाता जो उत्पादन स्रोतों पर भार हैं भारत में आवास, रोजगार के अवसर पैदा करने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्रों में से भवन निर्माण में प्रतिवर्ष दस प्रतिशत से अधिक रोजगार के अवसरों की वृद्धि कर सर्वाधिक विकास दर्ज किया गया है एक आकलन के अनुसार आवास के क्षेत्र में (1988-89) मूल्यों पर आधारित ) एक करोड़ रूपये के पूँजी निवेश में रोजगार के 1086.75 मानव अवसर पैदा होते हैं। इस प्रकार आवास भारत सरकार की गरीबी दूर करने और रोजगार के अवसर पैदा करने की नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे लोगों के लिए रहन –सहन और आर्थिक विकास में सुधार लेन के अभिन्न अंग के रूप में देखना होगा।
यह एक सराहनीय बात है की केंद्र सरकार ने बहुत ही कम समय में ऐसे कई कदम उठाये हैं जो आवास निर्माण गतिविधियों को बढ़ाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायक होंगे। इनका मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, कम आय वाले लोगों और इस प्रकार के अन्य कमजोर लोगों, जैसे गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों, ग्रामीण भूमिहीन मजदूरों और कारीगरी, अनुसूचित जाति/ जनजाति के लोगों, विधवाओं, अकेली रह रही महिलाओं और महिला प्रधान घरों तथा शारीरिक रूप से विकलांग लोगों आदि को सस्ते मकान उपलब्ध कराना है
संयुक्त राष्ट्र ने 1988 में सन 2000 के लिए विश्व की आवास नीति बनाई थी । इस सिलसिले में राष्ट्रीय आवास नीति जुलाई 1992 में सांसद में प्रस्तुत की गई थी। अगस्त 1994 में संसद ने इसका अनुमोदन कर दिया।
यह नीति विश्व की सन 2000 के लिए आवास नीति के अनुरूप सरकार द्वारा आवास के लिए सुविधा प्रदान करने के सिद्धांत पर आधारित है। इसका अर्थ है की सरकार या उसकी सार्वजनिक इकाइयाँ आवास निर्माण या आवास प्रदान करने का काम नहीं करेंगी। वे मुख्य रूप से आवास की सुविधाएँ जुटाएंगी। राष्ट्रीय आवास नीति के अंतर्गत राज्य की सुविधा जुटाने की भूमिका में सभी लोगों को सस्ते या कम खर्च वाले आवास प्राप्त करने प्राप्त करने में सहायता करना, आवास क्षेत्र के लिए धन जुटाने में मदद करना, उचित लागत वाली तकनीकों और भवन निर्माण सामग्री का विकास करना और उसका प्रचार करना, कानूनी बाधाओं को दूर करके आवास निर्माण की गतिविधियां तेज करने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना, रहने के लिए बेहतर वातावरण बनाने की मूलभूत सुविधाओं को बढ़ाना आदि शामिल है।
राष्ट्रीय आवास नीति का कार्यान्वयन कोई एक बारगी कार्य नहीं है। यह तो एक सतत प्रक्रिया है। सरकार केंद्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर विभिन्न नीति निदेशकों की सतत आधार पर कार्यान्वयन की लिए योजनाओं औरकार्यक्रमों को बनाने में प्राथमिकता भूमिका राज्यों को निभानी होगी। ये योजनाएँ और कार्यक्रम स्थानीय आवश्यकताओं और परस्थितियों के अनुरूप होने चाहिए जिससे की राष्ट्रीय आवास नीति को लागू किया जा सके।
केंद्र सरकार के स्तर पर राष्ट्रीय आवास नीति को लागू करने की दिशा में कई उपाय किये गए हैं। केंद्रीय स्तर पर किये गए ऐसे सभी उपायों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है – केंद्र सरकार जरूरत मंद राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनी योजनायें तैयार कर ली हैं और कुछ कर रहे हैं। जहाँ तक कानूनी मोर्चे का संबंध है, आदर्श किराया नियंत्रण क़ानून बना दिया गया है और राज्य सरकारों को दे दिया गया है संविधान में आवश्यक संशोधन किये गए हैं जिससे की राज्य सरकारें अपने स्तर पर किराया न्यायाधिकरण बना सकें। आदर्श फ़्लैट स्वामित्व विधायक भी राज्यों को सौंप दिये गए हैं। शहरी भूमि सीमा अधिनियम, सहकारी क़ानून, भारतीय पंजीकरण अधिनियम और स्टैम्प्स आधिनियम आदि में भी परिवर्तन किये जाने का प्रस्ताव है।
आवास निर्माण क्षेत्र में धन के प्रावधान को बढाने के लिए 21 आवास वित्त संस्थाएं, राष्ट्रीय आवास बोर्ड/भारतीय रिज़र्व बैंक के निरीक्षण में काम कर रही हैं। इन संस्थाओं ने आवास निर्माण के लिए पर्याप्त मात्रा में धन दिया है। राष्ट्रीय आवास बोर्ड उन्हें ब्याज की सस्ती दरों से पुनर्वित सुविधा प्रदान करता है। हुडको सहित कुछ आवास वित्त संस्थाएँ अपना आधार बढ़ानें के लिए सार्वजनिक जमा योजनाएँ चलती हैं। गिरवी प्रतिबंध व्यवस्था को सरल बनाने के लिए राष्ट्रीय आवास बोर्ड अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। इससे परवर्ती गिरवी कारोबार के सुचारू संचालन का रास्ता खुल जाएगा जिसके परिणाम स्वरुप आवास निर्माण के लिए धन प्रचुर मात्र में उपलब्ध होने लगेगा। अधिसूचित बैंक लोगों को आवास निर्माण के लिए हर साल करीब एक अरब रूपये देते हैं। इसके अलावा ये बैंक विभिन्न आवास वित्त एजेंसियों के लिए दो अरब से तीन रूपये का पूँजी निवेश करते है।
सरकार कचरे आदि पर आधारित नये किस्म की भवन निर्माण सामग्री के उत्पादन और प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए अनेक वित्तीय प्रोत्साहन भी देती है। भवन निर्माण सामग्री के बड़े पैमाने पर निर्माण के काम में आने वाली मशीनों के आयात पर सीमा शुल्क में रियायतें दी गई हैं। यह सामग्री कारखानों की राख और फस्फोजिप्स्म ले तैयार की जाती है
प्रौद्यगिकी के मोर्चे पर भवन निर्माण सामग्री और प्रौद्यगिकी प्रोत्साहन परिषद् गठित की गई है जो नव विकसित और अन्य कम खर्च वाली तकनीकों को लोकप्रिय बनाएगी और उनके कारोबार को समर्थन करेगी। राष्ट्रीय स्तर पर भवन निर्माण केन्द्रों का जाल बिछाया जा रहा है, जो कारीगरों आदि को प्रयोगशाला में तैयार नई तकनीकों के इस्तेमाल का प्रशिक्षण देंगे। देश के विभिन्न भागों में ऐसेकरीब 210 केंद्र इस समय कार्यरत हैं।
केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग ने अपने निर्देशों में कुछ किफायती तकनीकों और सामग्री को शामिल किया है। हुडको बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विभिन्न एजेंसियों को ऋण के रूप में सहायता प्रदान कर रहा है। हुडको के माध्यम से सफाई की किफायती योजना को भी कार्यान्वित किया जा रहा है।
राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन, आवास निर्माण संबंधी सूचना एकत्र करने और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए एक प्रबंध सूचना व्यवस्था का विकास कर रहा है।
यह एक सराहनीय बात है की केंद्र सरकार ने बहुत की कम समय में ऐसे की कदम उठाये हैं जो आवास निर्माण गतिविधियों को बढ़ाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सहायक होगें। इनका मुख्य उद्देश्य आर्थिक वर्गों, कम आय वाले लोगों और इस प्रकार के अन्य कमजोर लोगों, जैसे गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों, ग्रामीण भूमिहीन मजदूरों और कारीगरों, अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों, विधवाओं, अकेली रह रही महिलाओं और महिला प्रधान घरों तथा शारीरिक रूप से विकलांग लोगों आदि को सस्ते मकान उपलब्ध कराना है।
भोजन और कपड़े के बाद मनुष्य के लिए आवास सबसे जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने छोटे से मकान का सपना संजोता है। किन्तु जीवन की जटिल परिस्थितियों के कारण सबका यह सपना पूरा नहीं हो पाता है। भारत में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या, विखरते हुए संयुक्त परिवार और बढ़ती हुई महंगाई ने आवास समस्या को अधिक विकराल बना दिया है।
जनगणना के आंकड़े इस बात के साक्षी हैं की जनसंख्या वृद्धि की दर मकान बनाने की दर से अधिक तीव्र रही है। वर्ष 1981-91 के दशक में जनसंख्या वृद्धि की दर 23.50 प्रतिशत थी जबकि इस अवधि में मकान वृद्धि की दर 18.50 प्रतिशत थी। इस विषमता के कारण राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन के अनुमान के अनुसार वर्ष 1991 में देश में लगभग 310 लाख मकानों की कमी थी। जिनमें से 206 लाख मकानों की कमी ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 104 लाख मकानों की कमी शहरों क्षेत्रों में थी।
वर्ष 1991 व 2001 में परिवारों और आवासों की स्थिति (करोड़ में)
विवरण |
|
1991 |
2001 |
|||
|
ग्रामीण |
शहरी |
योग |
ग्रामीण योग |
शहरी
|
योग
|
परिवार उपयोगी |
11.35
|
4.71
|
16.06
|
13.70
|
7.22
|
20.92
|
आवास आवासीय |
9.29
|
3.97
|
12.96
|
11.15
|
5.67
|
16.82
|
कमी |
2.06 |
1.04 |
3.10 |
2.55
|
1.55
|
4.10
|
स्रोत : राष्ट्रीय भवन निर्माण संगठन
आर्थिक प्रगति और सामाजिक न्याय हेतु सब नागरिकों के लिए समुचित आवास जरूरी है। समुचित आवास से अभिप्राय संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टियों से संतोषजनक आवास व्यवस्था होनी चाहिए। हमारे देश की श्रमिक बस्तियों में आवास की समस्या गुणात्मक दृष्टि से दायनीय है। देश के कूल मकानों में से लगभग एक तिहाई मकान कच्चे हैं जो मिट्टी, बांस, घास- फूस इत्यादि से बने हैं। इन मकानों का जीवन बहूत कम होता है। वर्षा की बाद इनके पुन: निर्माण की आवश्यकता होती है
श्रामिक बस्तियों और गांवों में स्वच्छता, जल आपूर्ति, गंदे पानी और कूड़े- करकट की निकासी जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी है। जिसके कारण जल वायु और मृदा प्रदूषण में वृद्धि होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुसार श्रमिक बस्तियों में लगभग 80 प्रतिशत बीमारियों मुख्य रूप से पर्यावरणीय स्वच्छता की समस्या के कारण उत्पन्न होती हैं। छोटे आवासों के कारण होती हैं। छोटे आवासों के कारण यह समस्या और भी जटिल दिखाई देती है। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार कूल 1120 लाख परिवारों के लगभग 40.82 प्रतिशत के पास एक कमरे वाले, 30.65 प्रतिशत के पास दो कमरे वाले तथा 13.51 प्रतिशत के पास तीन कमरे वाले आवास थे। छत वाले आवासों की तुलना में घास, पुआल और छप्पर वाले आवासों का प्रतिशत 33, मिट्टी और कच्ची ईंटो वाले आवासों का प्रतिशत 6.05 तथा टेंट वाले आवासों का प्रतिशत 4.22 है। ग्रामीण क्षेत्रों, में श्रमिकों और कृषकों को आवास को इस दायनीय स्थिति के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
आवास के अनुसार परिवारों का प्रतिशत
आवास के प्रकार |
ग्रामीण |
शहरी |
कोई आवास नहीं |
----- |
0.1 |
स्वतंत्र मकान |
82.6 |
52.4 |
फ़्लैट |
2.7 |
17.1 |
झुग्गी– झोपड़ी |
2.0 |
10.8 |
अन्य |
11.7 |
19.8 |
स्रोत: राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन - 1992 का सर्वेक्षण तथा राष्ट्रीय आवास बैंक
औद्योगिक श्रमिकों के आवास की स्थिति अत्यंत सोचनीय है। वे छोटे, गंदे और अँधेरे आवासों में रहने के लिए विवश हैं। इनके आस-पास का वातावरण इतना प्रदूषित है की वहां साँस लेना भी मुश्किल है। पानी की निकासी की व्यवस्था न होने के कारण जगह-जगह गढ्डों में गंदा पानी सड़ता रहता है। चारो और फैले कूड़े पर मच्छरों व कीड़े – मकोड़े का साम्राज्य रहता है। इसलिए इन्हें गन्दी बस्तीयों का नाम दिया जाता है इन्हें देख कर पंडित नेहरू में कहा था – ‘ये गन्दी बस्तियाँ मानवता के पतन को प्रदर्शित करती हैं। जो व्यक्ति इन स्थितियों के लिए उत्तरदायी हैं उन्हें फांसी दे देनी चाहिए।”
राष्ट्रीय आवास नीति
देश की आवास समस्या को दूर करने के लिए समय - समय पर अनेक प्रयास किए गए। किन्तु प्रयासों में समन्वय का अभाव बना रहा है।इसलिए सरकार ने एक राष्ट्रीय आवास नीति तैयार की। इस नीति में सरकार की भूमिका आवास निर्माता के स्थान पर सुविधा प्रदाता की रूप में निर्धारित की गई थी। सरकार दुर्बल वर्गों की आवासीय आवश्यकताओं पर बराबर ध्यान देगी तथा इसके लिए प्रत्यक्ष करेगी। राष्ट्रीय आवास नीति के प्रमुख लक्ष्य इस प्रकार हैं –
आवासहीन व्यक्तियों, विस्थापितों, निराश्रित महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों तथा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के व्यक्तियों को आवास उपलब्ध कराने के लिए वातावरण निर्मित करना तथा इस सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
आवास निर्माण के लिए भूमि, वित्त, भवन निर्माण सामग्री तथा तकनीक आदि की सामान्य व्यक्तियों तक की पहुँच सुनिश्चित करना है।
आवास निर्माण में पूँजी विनियोजन को प्रोत्साहित करना ताकि आवास की राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति संभव हो सके।
नगरीय क्षेत्रों में झुग्गियों तथा बस्तयों का सुधार करना ताकि भूमि के अधिकतम उपयोग द्वारा अधिकाधिक व्यक्तियों को आवास मिल सके।
अपर्याप्त सुविधाओं वाले मकानों में रहने वाले व्यक्तियों की आवासीय स्थिति में सुधार करना तथा सभी बुनियादी सेवाओं और सुविधाओं का न्यूनतम स्तर उपलब्ध कराना।
आवास संबंधी कार्यों के लिए विभिन्न स्तर पर सहकारी संस्थाओं, विभिन्न तथा सामुदायिक व निजी संस्थाओं का सहयोग प्राप्त करना।
पर्यावरण संरक्षण, तकनीकी विकास तथा आवास सूचना प्रणाली आदि को बढ़ावा देना।
केंद्र सरकार ने आवास समस्या को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए नई राष्ट्रीय आवास नीति शीघ्र बनाने की घोषणा की है। सरकार ने प्रति वर्ष बीस लाख आवास बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया था।
देश में आवास समस्या को देखते हुए आवासों के निर्माण की अत्यंत आवश्यकता है। इसलिए निजी, सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक संस्थाएं आवासों के निर्माण में सलंग्न हैं।
आवास निर्माण में निजी क्षेत्र की भूमिका
व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम होते ही अपना मकान बनाने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। ऐसे व्यक्ति या तो स्वंय अपना मकान बनवाते हैं या विभिन्न निजी गृह निर्माण संस्थाओं द्वारा बनाए गए भवनों में अपने फ्लैट ले लेते हैं। आज की व्यस्तता और जटिलता भरे जीवन में व्यक्ति को स्वंय मकान बनवाना टेढ़ी खीर है। इसलिए आवास निर्माण में ठेकेदारों का प्राय: सहयोग लिया जाता है। आवासों की मांग बढ़ने के कारण प्राइवेट बिल्डर्स का व्यवसाय भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। किन्तु इस क्षेत्र से केवल उच्च आय समूह तथा उच्च मध्यम आय समूह के लोगों की हो आवास आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्राइवेट बिल्डर्स मुख्यतः बड़े शहरों में बहुमंजिले आवासों का निर्माण कर उनका विक्रय करते हैं।
आवास निर्माण में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका
आवास निर्माण के कार्य में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, सार्वजनिक वित्तीय संस्थाएँ तथा विकास प्राधिकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देश के विभाजन के तत्काल बाद शरणार्थी पुनर्वास निभाते है। देश के विभाजन के तत्काल बाद शरणार्थी पुनर्वास मंत्रालय द्वारा शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए एक आवास कार्यक्रम चलाया गया जो लगभग वर्ष 1960 तक चलता रहा जिसके अंतर्गत लगभग 5 लाख परिवारों को आवास उपलब्ध कराया गया। वर्ष 1957 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत एक ग्रामीण आवास योजना शुरू की गई जिसमें व्यक्तियों तथा सहकारी समितियों को प्रति आवास अधिकतम 5000 रूपये उपलब्ध कराए गए। इस योजना के अर्न्तगत 1980 तक 67000 आवास बने। न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम और बीस सूत्री कार्यक्रम में ग्रामीण आवास स्थल एवं आवास निर्माण योजना को उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई। सरकार द्वारा सामाजिक आवास योजनाओं के अंतर्गत पटरी पर रहने वाले व्यक्तियों को रात्रि आश्रय, गंदी बस्तियों में रहने वाले व्यक्तियों को बुनियादी सेवाएँ, सफाई कर्मचारियों की मुक्ति के लिए विशेष शौचालयों का निर्माण, हथकरघा व बीड़ी मजदूरों को आवास के लिए अनुदान, प्रकृतिक आपदाओं के क्षतिग्रस्त मकानों के पुनर्निर्माण के लिए सहायता, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के व्यक्तियों को कम लागत वाले आवास उपलब्ध कराए जाते हैं। विभिन्न राज्यों की आवास एवं विकास परिषदें अपने द्वारा विकसित कालेनियों में निम्न, माध्यम और उच्च वर्ग के लोगों को आसान किश्तों पर आवास व भूखंड सुलभ कराती हैं।
‘एक पंथ दो काज’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए वर्ष 1980 में क्रमशः राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम तथा वर्ष 1983 में ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम प्रारंभ किए गए जिनका उद्देश्य ग्रामीण रोजगार के अवसर बढ़ाने हेतु तथा साथ-साथ ग्रामीण आवासों के निर्माण को प्रोत्साहित करना था। वर्ष 1985 में केंद्र सरकार ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा मुक्त बंधुआ मजदूरों के आवासों के निर्माण के लिए ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम का एक भाग निर्धारित कर दिया। जिससे इंदिरा आवास योजना की रचना हुई। यह जवाहर रोजगार योजना के एक भाग के रूप में शुरू की गई। बाद में 1989 में इंदिरा आवास योजना ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम/ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम का का स्थान ले लिया। जनवरी 1996 से इंदिरा आवास योजना जवाहर रोजगार योजना से पृथक एक स्वत्रंत योजना के रूप में चल रही है।
इंदिरा आवास योजना का क्षेत्र आवश्यकतानुसार बढ़ता रहा है। प्रारंभ में इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे अनुसूचित जाति, जनजातियों तथा मुक्त बन्धूआ मजदूरों को नि:शुल्क आवास उपलब्ध कराना था बाद में इसके कार्य क्षेत्र में गैर अनुसूचित जातियों/जनजातियों के ग्रामीण गरीबों तथा युद्ध में मारे गए सशस्र सैनिकों व अर्द्ध सैनिकों बलों के परिवारों को भी शामिल किया गया। वर्तमान में इंदिरा आवास योजना के अर्न्तगत आवास निर्माण के लिए सहायता राशि प्रति आवास अधिकतम 20,000 रूपये है। लाभार्थियों का चयन करते समय उन परिवारों को वरीयता दी जाती हैं जिनका मुखिया विधवा, अविवाहित महिलाएं, विकलांग अथवा शरणार्थी हैं या जो अत्याचारों अथवा प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हैं या जो परिवार विकास परियोजनाओं से विस्थापित हैं या खानाबदोश हैं।
इंदिरा आवास योजना आवासहीन गरीबों को छत के साथ सुरक्षा और प्रतिष्ठा प्रदान करने वाली महत्वपूर्ण योजना सिद्ध हुई इस योजना के अंतर्गत 1985-86 से 1995-96 तक लगभग 30 लाख आवास बनाए गए।
आवास हेतु वित्त प्रदान करने वाली प्रमुख संस्थाएँ
आवास के लिए वित्त पहली आवश्यकता है। व्यक्ति वित्त की कमी के कारण ही अपना आवास बनाने में असमर्थ रहते हैं। विशेष रूप से गरीबों के लिए तो मकान एक दिवास्वप्न प्रतीत होता है। किन्तु अब आवास के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने वाली संस्थाएँ इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान कर रही है। जिससे आवास की समस्या को हल करने में मदद मिल रही है।
आवास निर्माण के लिए वित्तीय सहायता देने वाली प्रमुख संस्थाओं में आवास एवं शहरी विकास निगम (हुडको), राष्ट्रीय आवास बैंक भारतीय जीवन बीमा निगम, व्यापारिक बैंक आदि सम्मिलित हैं।
श्रमिकों की आवास समस्या के निवारण में सहकारी आवास समितियाँ लम्बे समय से आवासों के विकास में सलंग्न थीं किन्तु 1969 में भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ की स्थापना के बाद सहकारी आवास आंदोलन को गति प्राप्त हुई। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ विभिन्न राज्यों में शीर्ष सहाकरी आवास संघो में गठन को प्रोत्साहित करता है। वर्तमान में 25 राज्यों में शीर्ष सहकारी आवास संघ कार्य कर रहे हैं। ये संघ आवास निर्माण, भवनों की मरम्मत एवं विस्तार तथा भूखंड क्रय करने के लिए ऋण सुविधा प्रदान करते हैं।
भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ देश की समस्त सहकारी आवास समितियों को तकनीकी, वित्तीय तथा व्याहारिक समस्याओं के समाधान में सहयोग देता है। सदस्य संस्थाओं का मार्गदर्शन करते हुए उनके कार्यों में समन्वय स्थापित करता है। राज्यों के शीर्ष आवास सहकारी संघों को जीवन बीमा तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से वित्त उपलब्ध करने में भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ महत्वपूर्ण योगदान करता हैं। भवन निर्माण सामग्री के बनाने और संग्रह में भी आवास सहकारी संघ सक्रिय है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ देश का प्रतिनिधित्व करता है यह संघ सहकारी आवास समस्याओं के सम्बन्ध में अनुसंधान भी करता है। राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ ने एक तकनीकी सेवा प्रकोष्ठ की भी स्थापना की है जो सहकारी समितियों को आवास निर्माण में आवश्यक तकनीकी सेवाएँ उपलब्ध कराता है।
आवास सहकारी संस्थाओं ने देश में श्रमिक आवासों के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग किया है इनके द्वारा 15 लाख से अधिक पक्के आवास सहकारी संस्थाओं ने पर्याप्त योगदान किया है भारतीय राष्ट्रीय सहकारी आवास संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार आवास सहकारी समितियों द्वारा निर्मित आवासों में से लगभग 59 प्रतिशत आवास कमजोर एवं अल्प आयु वर्ग की लोगों की लिए तथा लगभग 30 प्रतिशत मध्यम आय वर्ग के लोगों की लिए हैं। वर्तमान में देश में लगभग 85 हजार प्राथमिक आवास सहकारी समितियाँ कार्यरत हैं।
आवास की कमी व्यक्तियों का आसराहीन बना कर पतन की ओर मोड़ देती है। जिस कारण वे समाज के साथ समरस नहीं हो पाते हैं। यहाँ तक की ये लोग समाज और स्वंय की लिए बोझ बन जाते हैं। औद्योगिक श्रमिकों और ग्रामीणों में आवास की समस्या अनके बुराइयों को जन्म देती है। एक अध्ययन के अनुसार भारत की गन्दी औद्योगिक बस्तियों के पुरूषों में पाशविक प्रव्रित्तियाँ आ जाती हैं, स्त्रियों का सतीत्व नष्ट हो जाता है तथा बालकों की जीवन को प्रारंभ से ही दूषित कर दिया जाता है वेश्यागमन की प्रवृति ले स्त्री व पुरूष दोनों के चरित्र बिगड़ जाते हैं। उनका स्वास्थ्य ख़राब हो जाता है राष्ट्र का संस्कृति स्तर गिर जाता है।
आवास समस्या के कारण श्रमिकों की कार्यकुशलता और उत्पादकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। समुचित आवास न होने के कारण वे मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार रहते हैं। परिणामस्वरूप वे ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाते हैं।
आवास की दायनीय दशा से लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। छोटी जग में अधिक लोगों के रहने, सफाई न होने, अँधेरा रहने के कारण बीमारियाँ बढ़ती हैं। बच्चे आकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। समुचित आवास न होने के कारण लोग भटकते रहते हैं। प्रवासी प्रवृति को बढ़ावा मिलता है। यहाँ तक की लोग अपराधों में संलग्न हो जाते हैं। समाज की शांति और सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाता है इस प्रकार आवास की समस्या अनेक भयंकर बुराइयों की जड़ है। इस समस्या का समाधान करके लोगों को देश के विकास में अधिक सहभागी बनाया जा सकता है।
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि आवास समस्या का प्रमुख कारण है। इसलिए आवास समस्या पर संख्यात्मक दृष्टि से प्रभावी नियंत्रण के लिए जनसंख्या वृद्धि पर दृढ़ता से रोक लगाई जानी चाहिए। इससे बेरोजगारी, अपराधी खाद्य प्रदूषण व अशिक्षा आदि समस्याओं के निवारण में भी सहायता प्राप्त होगी।
वित्त की कमी आवास निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए सरकार को आवास हेतु सस्ते ऋण सुलभ कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। गरीबी रेखा से नीचे जीवन – यापन करने वाले लोगों को कम लागत वाले सस्ते आवास उपलब्ध कराने चाहिए। इस कार्य में सहकारी आवास संस्थाएँ, राज्यों की आवास विकास परिषदें तथा नगर विकास प्राधिकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
गंदी बस्तियों के उद्धार के लिए निश्चित समय सीमा वाले त्वरित कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए, जिससे देश के मेहनतकश लोगों को नारकीय जीवन से मुक्ति दिला कर पतन से बचाया जा सके, और वे अच्छे नागरिक बन सकें।
आवास नागरिकों के लिए सुरक्षा का ऐसा कवच है जो उन्हें तमाम बुराइयों से बचा कर नैतिक मूल्यों से जोड़ता है। लोगों को ऐसा आवास आवश्य मिलना चाहिए जिसमें वे चैन का साँस ले सकें। उन्हें सूख की खोज में बाहर न भटकना पड़े। उनके बच्चों का बचपन गंदी नालियों और कूड़े के ढेरों में न खो जाए। उनके कदम अपराधों की ओर नहीं बढ़ने पायें। जनता के सूख और देश के विकास के लिए आवास समस्या का प्रभावी समाधान आवश्यक है।
आवास की सुविधा या मकान की जब बात चलती है तो अधिकांश लोगों के मन में शहरी मकानों की कल्पना साकार हो उठती है। भारत सरकार ने भी जब राष्ट्रीय आवास नीति घोषित की थी, तब उसका अधिक जोर शहरी आवास समस्या के समाधान पर ही ज्यादा था। आम चर्चा में भी शहरों में आवास की समस्या ही मुखर होती है। मकानों की कमी और बढ़ते किराये की समस्या ही मुखर होती है। मकानों के कमी और बढ़ते किराये की समस्या शहरों तक सीमित समझी जाती है। इस सारे संदर्भ किराये की समस्या शहरों तक ही सीमित समझी जाती है।
गाँव की हमारी परम्परागत कल्पना में कच्चे, मिट्टी की बनी दीवारों, फूस की छतों और अँधेरी बंद कोठरियों या झोपड़ियों का दृश्य ही बसता है। हम यह मान कर चलते रहे हैं की गाँव में आवास की कोई समस्या नहीं है और गांववासी जहाँ जगह मिलती है, दीवारें खड़ी कर लेता है। हमारी यही मान्यता उस स्थिति के लिए दोषी है जिसमें हमारे अधिकांश ग्रामवासी रह रहे हैं। उन्हें देखकर यह विचार हमारे मस्तिष्क में कौंधता ही नहीं की उन्हें भी साफ- सुथरे, सुविधाजनक और पक्के मकानों की जरूरत है या ऐसी सुविधाओं पर उनका भी कोई अधिकार है।
यह दोहराने की आवश्यकता नहीं की हमारे देश की अधिकांश आबादी अब भी गांवों में रहती है और उसी आबादी का बहुत बड़ा भाग गरीबी के रेखा से नीचे रहता है। अनुसूचित जाति, जनजाति, आदिवासी, भूमिहीन, विधवाएँ, विकलांग और आरक्षित वर्ग विशेष रूप से यह अपेक्षा करते हैं की समाज के सम्पन्न वर्ग उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होगें। रोटी और कपड़े के बाद मकान की जरूरत महसूस होती है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता की हमारे देश की गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली 19 प्रतिशत से अधिक आबादी अपनी रोटी की समस्या हल करने में ही व्यस्त रहती है की उसे मकान की कमी के बारे में सोचने का शायद समय ही नहीं मिल पाता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है की अपनी एक तिहाई आबादी को हम नारकीय जीवन बिताने के लिए छोड़ दें और उनकी ओर ध्यान ही न दें।
धन की कमी
इंदिरा आवास योजना जब शुरू की गई थी, तब इसी समस्या का समाधान करना ही योजनाकारों का मुख्य ध्येय रहा होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने लायक मकान बनाना और जरूरत मंद लोगों को वह मकान उपलब्ध कराना इस योजना के मुख्य उद्देश्य थे। यह योजना नि:संदेह गांवों में इस मूलभूत आवश्यकता की कमी की ओर देश के नीति नियोजकों का ध्यान आकृष्ट करने और आवास निर्माण की प्रक्रिया को गति देने में सफल रही है, किन्तु सम्पूर्ण प्रयासों और सदिच्छाओं के बावजूद यह योजना पिछले एक दशक में केवल बीस लाख मकान ही उपलब्ध करा सकी है जबकि आवश्यकता उससे कई गुना अधिक संख्या में मकान बनाने की है एक दशक के अनुभव के बाद अब यह कोशिश की जा रही है की इस योजना के लक्ष्यों और मकान निर्माण की गति में वृद्धि की जाए।
किन्तु अन्य कई योजनाओं की तरह आवास योजनाएँ भी धन की कमी और संसाधनों के अभाव से ग्रस्त है और विशेषज्ञों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत स्वयंसेवी संगठनों की एकमत राय है की इस योजना के अर्न्तगत ग्रामीण आवास निर्माण के लिए जितना धन दिया जाता है , वह इतना कम है की इस योजना का लाभ उठाने वाले, रह सकने लायक एक मकान बनाने के लिए कर्ज के जाल में फंस जाते है। फिर भी घर में उन्हें वह सुख नहीं मिल पाता जिसकी वह कामना करते हैं।
इसका संभवतः सबसे बड़ा कारण यह है की अभी तक भारत में हम ऐसी तकनीकें विकसित नहीं कर पाए हैं। जो कम खर्च में और हमारी जलवायु तथा बदलते मौसम के अनुकूल अच्छा मकान बनाने में सहायक हों।
अगर बचत और कम खर्च के नाम पर हमने ऐसी कोठरियाँ बनाकर खड़ी कर दी जिनमें न हवा का प्रबंध हो, न रोशनी का और गैस या बिजली के अभाव में जहाँ गोबर या लकड़ियाँ जलाकर रसोई बनानी पड़ती हो किन्तु उसके धुएँ के निकलने का प्रावधान न हो तो मकानों में कौन रहना पसंद करेगा। अत: हमें ऐसी तकनीकी विधियाँ विकसित करनी होंगी जिनमें सचमुच कम लागत में ग्रामीण परिवेश के लायक घरों का निर्माण किया जा सके।
आखिर घर केवल चार दीवारों और सिर पर छत का ही नाम नहीं है। उसमें वह आराम और सुविधा भी, भले ही कम मात्रा में, मिलनी चाहिए जो एक मकान को एक घर का रूप दे सके। इसमें भी कोई संदेह नहीं की पिछले 10-12 वर्षो में ग्रामीण क्षेत्रों में आवास समस्या हल करने की दिशा में कदम उठाए गए हैं। और लाखों की संख्या में नये मकान भी बने हैं, क्या वे रहने के लायक हैं या उनसे उन लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति ही रही है जिनके लिए वे मकान बनाए गए हैं कुछ भी न होने से हो कुछ भी हो बेहतर होता है, किन्तु जिस विशाल समस्या को हल करने की कोशिशें की जा रही हैं, उसकी तुलना में केवल कागजी कारवाई करना अथवा केवल औपचारिकता के नाम पर कुछ ढांचा खड़ा कर देना न केवल राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी है बल्कि समस्या को हल करने की बजाए उसे और उलझाना है। अनेक स्थानों से ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं की मकानों का ढांचा तो तैयार खड़ा है, लेकिन जिनके पास एक झोपड़ी तक नहीं है, वे भी उसमें रहने को तैयार नहीं हैं। किसी भिखारी को खोटा सिक्का देकर हम दानी तो कहला सकते हैं, लेकिन उससे उस व्यक्ति का भला करने की हमारी कामना पूरी नही हो सकती।
सस्ते और टिकाऊ मकान, विशेष रूप ग्रामीण क्षेत्रों की जरूरतों और जलवायु के अनुरूप सस्ते मकान बनाने के लिए इस पर बल देना नितांत आवश्यक है की उनमें अधिकांश संसाधन स्थानीय रूप से उपलब्ध हों। इसके लिए तकनीकी विधियाँ विकसति करनी जिनमें बाहर से, मंगायी जाने वाली समाग्री के स्थान पर उसी गाँव या कस्बे या उसके इर्द – गिर्द उपलब्ध सामग्री का उपयोग करके ही टिकाऊ और सस्ता मकान बनाया जा सके। कई क्षेत्रों में ऐसे अभिनव प्रयोग करके लोगों ने अपनी आवास समस्या हल की हैं। इनमें से कुछ प्रयोग सफल नहीं भी हुए। उन पर तकनीकी दृष्टि से विचार करके उनकी त्रुटियों को दूर किया जा सकता है। जहाँ ऐसे प्रयोग आंशिक रूप से सफल समझे गए हैं, वहाँ उनमें सुधार करके कमियाँ दूर की जानी चाहिए और जहाँ ये प्रयोग सफल रहे हैं, वहाँ की खूबियों को अन्य क्षेत्रों में प्रचारित करने की आवश्यकता है।
भारत जैसे विशाल देश में विविध प्रकार की जलवायु और मौसम होते हैं। कहीं तेज लू और धूप से बचने वाले मकान चाहिए तो कहीं वर्षा के प्रकोप से रक्षा की जरूरत है। कहीं बर्फीली हवाओं में भी घर को गर्म रखना महत्वपूर्ण हो सकता है। ऐसी विभिन्न परिस्थियों के लिए अलग-अलग तकनीक, अलग ढंग की समाग्री और वास्तूशिल्प की आवश्यकता होगी। इसलिए हम सारे देश में मकानों के लिए एक जैसा नक्शा या डिजाईन नहीं दे सकते।
किन्तु विडम्बना यही है की अब तक मुख्य रूप से ऐसा ही होता आया है। शहरों में बैठकर ग्रामीण मकानों के अभिकल्पना के जो परिणाम हो सकता हैं, हम आज वही परिणाम भोग रहे हैं।
अगर बचत और कम खर्च के नाम पर हमने ऐसी कोठरियाँ बनाकर कर दी जिनमें न हवा का प्रबंध हो, न रोशनी का और गैस या बिजली के अभाव में जहाँ गोबर या लकड़ियाँ जलाकर रसोई बनानी पड़ती हो किन्तु उसके धुएँ के निकलने का प्रावधान न हो तो उन मकानों में कौन रहना पसंद करेगा। अत: हमें ऐसी तकनीकी विधियाँ विकसित करनी होंगी जिनमें सचमुच कम लागत में ग्रामीण परिवेश के लायक घरों का निर्माण किया जा सके।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
भवन निर्माण गतिविधियाँ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास से सीधे जुड़ी होती हैं। अर्थव्यवस्था में विकास से भवन को प्रोत्साहन मिलता है। ग्रामीण संदर्भ ने भी यह कहा जा सकता है की देहातों में जीवन स्तर में सुधार का एक लक्षण मकानों के निर्माण में देखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में अगर भवन निर्माण की गतिविधियाँ बढ़ती हैं तो उसका सीधा प्रभाव अर्थव्यवस्था के विकास की गति में दिखाई देता है किन्तु दु:खद स्थिति यह है की ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिशा में जो भी प्रयास किए गए उनका बहुत कम प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दिखाई दिया। भवन निर्माण सामग्री के निर्माण और उत्पादन, आपूर्ति और बिक्री आदि से अर्थव्यवस्था बलवती होती है और बड़ी संख्या में लोगों को सीधे रोजगार मिलता है ग्रामीण क्षेत्रों में आम जनता की आर्थिक विपन्नता को देखते हुए यह तो संभव है की मकान बनने से लाभान्वित होने वाला वर्ग श्रमदान द्वारा अपना योगदान देकर रोजगार बढ़ाने में उतना सहायक न हो सके, लेकिन अन्य क्षेत्रों की गतिविधियों को भी अब तक कोई बढ़ावा नहीं मिला है। यह हमारी ग्रामीण आवास योजनाओं की सबसे बड़ी त्रुटि है और संभवतः देहातों में अभी तक सस्ते मकान न बन पाने का एक बड़ा कारण इसी त्रुटि में निहित है।
संविधान में संशोधन और पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना के बाद इन त्रुटियों को ठीक कराना अधिक आसान हो गया मकान बनाने की गतिविधि मुख्य रूप से स्थानीय गतिविधि है और देहातों में आवास – निर्माण का काम तथा बाहरी पक्षों पर किसी तरह की निर्भरता के बिना ही पूरा किया जा सकता है। पंचायती राज संस्थाएँ इस काम को अपने हाथ में लेकर इस महत्वपूर्ण लक्ष्य को पूरा करने में अमूल्य योगदान के सकती हैं आवास योजनाओं के लिए केंद्र सरकार से मिलने वाली राशि सीधे पंचायतों को देकर उन्हें यह जिम्मेदारी सौपीं जा सकती है की वे अपने-अपने क्षेत्र में आवास लक्ष्यों को पूरा करें। पंचायतों के हाथ में यह काम आने पर स्थानीय सामग्री का उपयोग भी बढ़ेगा और आवास निर्माण में स्थानीय उपयोगिता को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
आवास समस्या एक राष्ट्रीय समस्या है और इसके समाधान के लिए राष्ट्रीय आवास नीति भी बनाई गई है। लेकिन आवश्यकता इस बात की है की ग्रामीण आवास नीति निर्धारित की जाए जो शहरों में गगनचुंबी इमारतों के निर्माण की जगह गांवों में छोटे-छोटे किन्तु उपयोगी और अनुकूल आवासों के विस्तार के लिए प्रयत्नशील हो। जब तक ऐसा नहों होगा, तब तक शहरों और गांवों के बीच का अंतर बढ़ता रहेगा और गांवों से शहरों की ओर पलायन की प्रवृति रहेगी जिससे गांवों में श्रम शक्ति का अभाव होगा और शहरों में भीड़-भाड़ की समस्याएँ और भी जटिल होती जाएंगी।
आवास भी रोक नहीं पा रहा है आदिम जनजाति बिरहोर की यायावरी
झारखण्ड राज्य में निवास करने वाले आदिम जनजाति बिरहोर जाति की स्थायी रूप से बसाने एवं विकास की मुख्यधारा से जोड़ने दे लिए राज्य सरकार के कल्याणकारी योजनाएँ संचालित एवं कार्यान्वित करने के बावजूद भी आदिम जनजाति बिरहोरों की यायावरी जिन्दगी पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। बोकारो जिला के नवाडीह प्रखंड अंतर्गत अरगामों पंचायत के नवाटंड टोला में एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार लाखों की लागत से आवास एवं कुओं का निर्माण किया गया किन्तु आश्चर्यजनक तथ्य यह है की आज की तारीख में नवाटंड टोला के आवास में एक भी बिरहोर परिवार निवास नहीं करता।
विदित हो की आज से लगभग दो दशक पूर्व आदिम जनजाति बिरहोर के दस परिवारों को नवाडीह प्रखंड के अरगामों पंचायत के नावाताढ़ के इन दस बिरहोर परिवारों के के लिए इंदिरा आवास एवं एक कूएँ का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त बिरहोर को आत्मनिर्भर बनाने हेतु बकरी पालन के लिए कल्याण विभाग की ओर से आर्थिक सहयता दी गयी थी किन्तु जब तक उक्त योजनाएँ संचालित होती रही बिरहोर परिवार नवाटंड टोला में टिका रहा, पर योजना कार्यान्वित होते ही पुन: वे नवाटंड टोला छोड़ के अन्यत्र पलायन कर गये। इसके उपरांत पुन: वर्ष 2002-03 में झारखण्ड वर्ष झारखण्ड सरकार के कल्याण विभाग की ओर से बिरसा मुंडा आवास योजना के तहत अरगामो पंचायत के नवाटंड टोला में आदिम जनजाति टंकू बिरहोर, प्रकाश बिरहोर, दूंढबिरहोर, ब्रिभ्दू बिरहोर एवं कल बिरहोर की लिए 56-56 हजार की लागत से पांच आवास तथा 32 हजार की लागत से एक नये कूएँ का निर्माण किया गया। यहाँ तक की एक बिरहोर को कल्याण विभाग की ओर से एक टेम्पो भी मुहैया कराया गया। इसके बावजूद कल्याण विभाग को योजनाएँ बिरहोरों को स्थायी रूप में नाकाम साबित हुई।
विदित हो की झारखण्ड प्रदेश में निवास करने वाली बिरहोर जाति आदिम जनजाति के रूप में जाती है। घुमंतू प्रकृति की बिरहोर जाति यायावर पूर्ण जिंदगी जीते हैं। बिरहोर जाति का जीविका का मुख्य स्रोत जंगली पशु – पक्षीयों का शिकार, जंगली कन्द मूल एवं जड़ी-बूटी के अलावा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों की छाल से रस्सी का निर्माण एवं बिक्री है। फलस्वरूप बिरहोर जनजाति अपनी जीविका की उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए झारखण्ड क्षेत्र के विभिन्न पठारी एवं जंगली क्षेत्रों में घुमंतू पूर्ण जिन्दगी व्यतीत करते हैं।
राज्य की आदिम जनजाति बिरहोरों के लिए तो सरकार की ओर से कई योजनाएँ संचालित की गयी हैं एवं अभी भी जारी है। बिरहोर परिवार का आर्थिक और सामाजिक विकास किया जाना है अति आवश्यक है, तभी बिरहोरों परिवार में स्थायीत्व की आशा की जा सकती है। किन्तु सरकारी अधिकारी ऐन – केन प्रकारेण राशि को किसी तरह खर्च कर देना ही बिरहोर परिवारों का विकास मान लेते हैं। उदाहरण स्वरुप नवाडीह प्रखंड के अरगामो पंचायत के नवाटंड टोला में कार्यान्वित विकास योजनाओं को लिया जा सकता है। विदित हो की पूर्व में उपरोक्त बिरहोरों के लिए इंदिरा आवास के साथ-साथ एक कूएँ का निर्माण किया गया था। इसके बावजूद वर्ष 2002-03 में पुन: एक नया कूआँ का निर्माण किया गया है। जबकि पुराने कूएँ को महज दो - तीन हजार रूपये खर्च के दुरूस्त किया जा सकता था। एक तरफ सरकारी अमला बिरहोर परिवारों को दुधारू गाय समझ कर योजनाएँ संचालित कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर बिरहोर भी हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर घुमंतू एवं यायावरी पूर्ण जिंदगी छोड़ने को तैयार नहीं है।
उदहारण स्वरुप नवाडीह प्रखंड के बिरनी पंचायत अंतर्गत चोताही टोला में पिछले छह माह से निवास कर रहे चार बिरहोर परिवारों को लिया जा सकता है। ज्ञात हो की बिरनी पंचायत की चोटाही नामक स्थान में होपना बिरहोर, कालू बिरहोर, अर्जुन बिरहोर एवं मंगरा बिरहोर का परिवार पिछले छह माह से पर्णकुटी (कूम्बा) का निर्माण कर रहे थे। चोटाही में रह रहे इन बिरहोरों का कहना है की वे लोग मूल रूप ले धनबाद जिला के तोपचांची प्रखंड ( झरिया वाटर बोर्ड ) के समीप चलकरी नामक स्थान के निवासी हैं। वहाँ बिरहोर परिवारों के लिए धनबाद जिला प्रशासन द्वारा इंदिरा आवास का त्याग कर नवाडीह प्रखंड के चोटाहे में कुम्बा का निर्माण कर रहे हैं। इसका कारण बिरहोरों ने बताया की तोपचांची के चलकारी में परिवार के लीग हमेशा बीमारी से ग्रस्त रहते थे। बिरहोरों को आशंका है की आवास में शायद किसी भूत-प्रेत की छाया है। इसी अंधविश्वास से ग्रसित होकर बिरहोर परिवार के पुरूष मूंगो गाँव में चरवाहा तथा महिलाएँ रस्सी बाँटकर जीविकापार्जन कर रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है की अभी भी बिरहोर जाति अपने आप को समाज की मुख्यधारा से जोड़ नहीं पाये हैं।
कैसा हो मकान
मकान गर्मी, सर्दी, बरसात और प्राकृतिक आपदाओं से बचने का आश्रय स्थल होता है इसलिए जलवायु और मौसम की हिसाब से भिन्न-भिन्न राज्यों में अलग- अलग ढंग से मकान बनाए जाते हैं। देश के गाँवों में एक ही डिजाइन और एक ही किस्म की भवन निर्माण सामग्री से मकान नहीं बनाए जा सकते। पढ़िए इस लेख में ग्रामीण क्षेत्र में भवन निर्माण की विभिन्न शैलियों की साथ-साथ वहाँ लागू सरकार की आवास योजनाओं के बारे में विश्लेष्णात्मक विवरण। |
भारत एक घनी आबादी वाला देश है। इसलिए यहाँ रहने के लिए मकानों के समस्या होना स्वभाविक है। यह समस्या शहरों में तो है ही, ग्रामीण क्षेत्र भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार देश में 3 करोड़ दस लाख मकानों की कमी थी जिसमें से दो करोड़ 36 लाख मकानों की कमी केवल ग्रामीण क्षेत्र में ही थी। देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाये जाने के बाद इस ओर बड़ी गम्भीरता से ध्यान दिया जा रहा है। गांवों में कमजोर वर्गो को मकान उपलब्ध कराने के विशेष प्रयास किए जा रहे है। यह कोशिश की जा रही है की गांवों में मकान स्थानीय साधनों के अधिकाधिक उपयोग से बनाए जाएँ। इसके लिए भवन निर्माण की ऐसी तकनीकें भी विकसित की जा रही हैं जो किफायती हो लेकिन इसके साथ ही परम्परागत मूल्यों एवं जीवन शैली से बद्ध भारतीय ग्रामीण – जीवन जहाँ की जनसंख्या का एक तिहाई गरीबी-रेखा से नीचे जीवन – यापन करता है, वहाँ आवास निर्माण के दौरान आने वाली की दिक्कतों को ध्यान को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ। आवास निर्माण का अर्थ मात्र आश्रय हेतु निर्माण तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि इन पिछड़े इलाकों में मूलभूत आवश्यकताओं को मुहय्या कर एक सम्पूर्ण सहायक तंत्र का निर्माण करना होता है।
ग्रामीण आवास निर्माण का एक अन्य पहलू है भौगोलिक एवं जलवायु अन्य कारकों को मद्दे नजर रखकर विभिन्न इलाकों में आवस निर्माण की अलग-अलग प्रणालियों को अपनाना। उदाहरनार्थ, देश के मध्यस्थ भू-भागों में मकानों का मुख अंदर की ओर होता है, जिनमें स्थित कमरे तथा बरामदे बीचो-बीच आँगन में खुलते है; प्रवेश द्वार सामने की ओर होता है, जो अंदर बनी लाबी में खुलता है; जहाँ मिट्टी या पत्थर की बनी कुर्सियाँ दोनों ओर होती हैं जो बीचो बीच आंगन तक चली जाती हैं, ऐसे मकानों की उत्तर प्रदेश में अहाता तथा महाराष्ट्र में वडास कहा जाता है। रेगिस्तानी इलाकों में समतल छतें बनायी जाती हैं, जिन पर मिट्टी की मोटी परत जमायी जाती है यह अत्यधिक ताप के प्रभाव को कम करने में सहायक होती हैं। तटीय इलाकों में मकानों का मुख बाहर की ओर होता है, ताकि बहती मंद समीर द्वारा अत्यधिक नमी से राहत पायी जा सके। पठारी इलाकों में ताप से बचने की लिए मकानों और भी ज्यादा प्रावधान होते हैं। कहीं-कहीं जमीन से नीचे भी एक मंजिल बनायीं जाती है। अत्यधिक वर्षा के कारण तटीय तथा पठारी इलाकों में छतें धूर्मूस करके बनायीं जाती है।
आवास की समस्या
देश के विभिन्न क्षेत्रों में आवास की समस्या को देखते हुए सरकार प्रत्येक क्षेत्र में में लोगों को उनकी जरूरतों के मुताबिक मकान उपलब्ध कराने के प्रयत्नशील है। इसके लिए कई योजनायें चलायी जा रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आवास - समस्या के निदान के लिए दो बृहत कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं – (1) इंदिरा आवास योजना, तथा (2) ग्रामीण आवास योजना।
इंदिरा आवास योजना
जवाहर रोजगार योजना के अंतगर्त चलायी जा रही यह उपयोजना ग्रामीण जनसंख्या के निम्नलिखित वर्गों को प्राथमिकता के क्रम में शामिल करती है –
मुक्त बंधुआ मजदूर।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के वे लोग जो अत्याचार के शिकार हुए हों।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के गरीबी – रेखा से नीचे जोवन- यापन करने वाले परिवार जिनकी प्रमुख विधवा औरतें या आविवाहित औरतें हो।
अनुसूचित जातिया अनुसूचित जनजाति के परिवार, जो प्रकृतिक आपदाओं का शिकार हुए हों, यथा बाढ़, सूखा इत्यादि।
केंद्र सरकार ने इस योजना के कार्यान्वयन के लिए 1995-96 में 100 करोड़ रूपए आबंटित किए। जिला ग्रामीण विकास प्राधिकरण अथवा जिला परिषद द्वारा संचालित इस योजना के तहत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को उनकी जनगणना के अनुपात के आधार पर धनराशी आवंटित की जाती हैं। लाभान्वित को आवास निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया जाता है।
लाभार्थियों को प्रोत्साहन
मानव – संसाधना के विकास के लिए पर्याप्त प्रावधान इस योजना के अंतर्गत रखे गए हैं जो निम्नलिखित है -
महिला मजदूरों की आवास निर्माण की कार्यकुशलता में वृद्धि करना तथा उनके रहन-सहन में सुधार लाना।
आवास – निर्माण कार्य में ठेकेदारों की हिस्सेदारी पर प्रतिबंध लगाया गया है। इसका उल्लंघन होने पर केंद्र सरकार संबंधित राज्य को आबंटित की गयी धनराशि वापस ले सकती है।
लाभान्वितों को आबंटित धनराशि एकमुश्त न देकर निर्माण कार्य में प्रगति के आधार पर किश्तों मंदी जाने का प्रावधान है।
बड़े पैमाने पर ईंटों, सीमेंट तथा इस्पात के प्रयोग को निरुत्साहित करना तथा इसके स्थान पर चूना अथवा चूना – सुर्खी के प्रयोग को बढ़ावा देने का प्रावधान है। लाभान्वितों को स्वनिर्मित ईंटो के इस्तेमाल की इजाजत दी जाती है।
आवास – निर्माण कार्य आरम्भ करने से पहले उस स्थान पर, यदि आवश्यक हो तो, हैण्डपम्प स्थापित किया जाता है।
शौचालय की स्थापित करना तथा नालियों का उचित प्रबन्ध करना भी इस कार्यक्रम का अभिन्न अंग है।
इस कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु स्वेच्छिक संगठनों का भी सहयोग लिया जाता है। ये सगंठन आवास निर्माण संबंधी कार्यो के अलावा शौचालय तथा धुआंरहित चूल्हों की सुविधा दिलाने में भी मदद करते हैं।
ग्रामीण आवास योजना
यह केंद्र सरकार की अन्य महत्वपूर्ण योजना हैं जिसमें वह राज्य सरकारें को उनके द्वारा ग्रामीण आवास कार्यक्रमों पर खर्च करने हेतु आंबटित धनराशिका 50 प्रतिशत प्रदान करती है। यह योजना 1993-94 में शुरू की गई। इसके तहत कमजोर वर्गों तथा गरीबीरेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को, निम्न आवश्यकता कार्यक्रम के अर्न्तगत दी जाती है। प्राथमिकता के आधार पर इस योजना द्वारा आंबटित धन राशि निम्न मदों पर खर्च की जाती है।
स्थल और सेवाएँ
आश्रय उन्नयन
नए मकानों का निर्माण
इस योजना के तहत 2700 रूपए लाभार्थियों को स्थल तथा सेवाएँ विकसित करने के लिए दिए जाते हैं। इसके अलावा 6000 रूपये आवासों के उन्नयन हेतु 12000 रूपये आवास निर्माण हेतु प्रदान किए जाते। इसमें लाभान्वितों द्वारा स्वयं 10 प्रतिशत योगदान सम्मिलित होता है। केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक यूनिट पर आए खर्च का अधिकतम 45 प्रतिशत योगदान किया जाता है स्थान तथा सेवाओं के विकास के अर्न्तगत सैनेटरी लैट्रिन , धूँआरहित चूल्हों, नालियों तथा अन्य सुविधाओं को सम्मिलित किया जाता है। यह प्रावधान आवासों के उन्नयन तथा निर्माण दोनों ही अवसरों पर लागू होता है
। इंदिरा आवास निर्माण के हर पहलू में भागीदारी सूनिश्चती की जाती है स्थानीय तथा निर्माण दोनों ही अवसरों पर लागू होता है। इंदिरा आवास योजना की भांति इसके अर्न्तगत भी आवास निर्माण के हर पहलू में भागीदरी सुनिश्चित की जाती है स्थानीय तथा परम्परागत सामग्रियों, डिजाईनों तथा तकनीक को प्रोत्साहित किया जाता है। अत: कार्यक्रम की व्यपकताको देखते हुए आठवीं पंचवर्षीय योजना में इसके क्रियान्वयन हेतु 350 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया। 1995-96 में 45 करोड़ रूपये सालाना इस योजना के लिए आबंटित किए गए।
अन्य प्रयास
आवास और शहरी विकास निगम (हुडको) ग्रामीण आवास के कार्य में सक्रिय भूमिका निभाता रहा है इसके अलावा कापार्ट जो की ग्रामीण क्षेत्र तथा रोजगार मंत्रालय पंजीकृत है, अपने विशेष कार्यक्रमों द्वारा परोक्ष- अपरोक्ष रूप से ग्रामीण आवास योजनाओं में सहायता देता है। ग्रामीण विकास से संबंधित कार्यों में यह स्वैच्छिक संस्थाओं को शामिल व प्रोत्साहन करता है। यह ग्रामीण विकास हेतु उपयुक्त तकनीकों को विकसित करने को प्रोत्साहित करता है एवं रोजगार उपलब्ध कराने तथा सामुदायिक सम्पति के विकास में योगदान देता है। इसके लिए युवा उद्यमियों को प्रशिक्षण देने का कार्य भी कर रहा है।
इसके अलावा श्री लारी बेकर की अध्यक्षता में एक कार्यदल गठित किया गया था। इसका उद्देश्य लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने तथा समृद्ध तकनीक के प्रचार- प्रसार एवं अन्य सुविधाओं को मुहय्या करने में अपना योगदान देना है। इस कार्यदल के अंतर्गत बनाई गई चार जोनल कमेटियाँ आवास निर्माण में कमजोरियों एवं खामियों को सामने लाएंगी तथा ग्रामीण आवास कार्यक्रमों को प्रभावी एवं सफल बनाने में बाधक समस्याओं का निदान ढूँढने में परामर्श देंगी।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है की सरकार ग्रामीण आवासकी समस्या के निदान हेतु कृत संकल्प है। 1991 में 1.37 करोड़ ग्रामीण आवासों का अभाव था। साथ ही यह अभाव प्रति वर्ष 20 लाख की दर से बढ़ रहा है।
स्त्रोत-
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अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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